“मैं और समाज की वास्तविकता – कठोर सत्य” भाग 2


परिचय (Introduction):

मैं और समाज की वास्तविकता - कठोर सत्य" भाग 2

मैं और समाज की वास्तविकता (सच्चाई) : समाज में हर काम सम्मान के लायक है चाहे वह कूड़ा बीनने वाला हो, फल विक्रेता हो, रेहड़ी-पटरी करने वाला, अभिनेता, नर्तक, कुलीन व्यवसायी आदि हो। जिस तरह कोई भी धर्म बुरा नहीं होता, यह उनके भक्त हैं जो इसे धूमिल करते हैं। उसी तरह, किसी विशेष पेशे में ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने गलत कामों से उस पेशे को बदतर बना दिया है।

इसे एक उदाहरण से समझते हैं। आपने भारत के शीर्ष सरकारी अस्पतालों के बारे में सुना होगा जो दिल्ली में स्तिथ हैं। जी.बी. पंत अस्पताल, जीटीबी अस्पताल, सफदरजंग अस्पताल आदि। आप सोच रहे होंगे कि मैंने इस ब्लॉग में गलत ट्रैक कर लिया है। लेकिन मैं आपको यह बताने की कोशिश कर रही हूँ कि कैसे एक आम इंसान की ज़िन्दगी में छोटे से छोटा काम करवाना भी मुश्किल हो गया है बढ़ते हुए भ्रष्टाचार की वजह से।

भ्रष्टाचार और मुफ्त बिस्कुट (Corruption & Free Biscuits):

मैं एक सरकारी अस्पताल में एक दुकानदार की वास्तविक जीवन की घटना साझा करना चाहती हूँ। यह सुनकर ऐसा लगता है कि जो इंसान सरकारी अस्पताल में दुकान चलाता है, उसके वहाँ के कर्मचारियों से अच्छे संपर्क होंगे और तो और वो किसी के भी काम आसानी से करवा सकता है।

अक्सर लोग उस दुकानदार को कहते हैं, “आपको तो कोई टेंशन नहीं है। आप तो सबको अस्पताल में जानते होंगे। जरा हमारे भी काम करवा दिजिये”। लेकिन एक बहुत लोकप्रिय कहावत है कि “घास हमेशा दूसरी तरफ हरी होती है”।

इस दुकानदार को रोजाना अस्पताल के आला अधिकारी से लेकर कूड़ा बीनने वाले तक, सबसे निपटना पड़ता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसे अपना व्यवसाय चलाना है और अपने परिवार को रोटी उपलब्ध करवानी है।

यहां जब मैं “निपटना” कहती हूं, तो मैं इस शब्द का उपयोग नकारात्मक संदर्भ के संबंध में कर रही हूँ। रोज सुबह एक कूड़ा बीनने वाला उसकी दुकान पर कूड़ा उठाने आता है। वह खाने-पीने का सामान जैसे बिस्कुट, चाय और सैंडविच फ्री में मांगता है।

फ्री फ़ेचर्स (Free Fetchers):

यदि दुकानदार मना करता है तो उसे कुछ गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं। कचरा बीनने वाला अपना कचरा नहीं उठाएगा। इसके विपरीत वह दुकान के बाहर अन्य लोगों का कूड़ा-करकट फैलाकर स्वच्छता विभाग को इसकी सूचना देगा। अधिकारी दुकान पर जाकर कचरे के साथ कई तस्वीरें क्लिक करेंगे। फिर वे आसपास के वातावरण को गंदा रखने के लिए दुकानदार के खिलाफ झूठी शिकायत दर्ज करेंगे। इससे दुकानदार का दुकान चलाने का लाइसेंस रद्द हो सकता है।

जरा सोचिए, यह सब दुकानदार के मुफ्त चाय, बिस्कुट और सैंडविच देने से इनकार करने के कारण हुआ। यह तो एक शुरुआत है और सोचिए अंत कैसा होगा! आइए बात करते हैं प्रसिद्ध सरकारी अस्पताल के जीवन रक्षक “एम्बुलेंस ड्राइवर” के बारे में।

निस्संदेह, यह समाज के लिए बहुत ही नेक काम करते हैं लेकिन इसका एक काला पक्ष भी है जो “मुफ्त चिप्स, पानी की बोतल और सैंडविच” मांग रहा है। यदि दुकानदार मना करता है, तो चालक बेहतर सुरक्षा के लिए आवंटित उसी अस्पताल में काम कर रहे अपने बाउंसर दोस्तों को बुलाएगा। वे उसे पूरी तरह से परेशान करते हैं और धमकाते हैं जो अंततः दुकानदार को उन सबके सामने झुका देता है।

क्या पुलिस विश्वसनीय है (Are Police Reliable) ?

यह सवाल आपको परेशान कर सकता है कि कोई ऐसी चीज़ों को सहेगा क्यों ? दुकानदार उनके खिलाफ थाने में शिकायत क्यों नहीं करा देता ? लेकिन मेरे प्यारे दोस्तों, यह रील नहीं बल्कि रियल लाइफ है! चीजें वैसी नहीं हैं जैसी समाज में दिखाई जाती हैं। जिस घटना का जिक्र मैंने ऊपर एंबुलेंस ड्राइवर और बाउंसर के तौर पर किया है, उसमें उनका साथ पुलिस भी देगी। पुलिस दुकानदार के लिए नहीं बल्कि बाउंसरों और एम्बुलेंस चालक की मदद करने के लिए रहेगी ताकि वे भी दुकानदार से कुछ मुफ्त सामान लें सकें। क्या वे निश्चित रूप से समाज के रक्षक हैं?

प्रताड़ित करने का पुलिस का अपना तरीका है। वह इतनी जिम्मेदार हो जाती है कि वे उन कर्तव्यों का भी पालन करना शुरू कर देती हैं जो उन्हें आवंटित नहीं किए जाते। उदाहरण के लिए, पुलिस दुकानदार को लाइसेंस के दस्तावेजों के साथ थाने बुलाएगी ताकि उसका समय और पैसा बर्बाद हो। उन्हें अस्पताल प्रशासन से दस्तावेज लेने चाहिए न कि दुकानदार से। यह वास्तव में एक अनावश्यक मानसिक दबाव बनाने के लिए किया जाता है जिससे कि दुकानदार अपना व्यवसाय कुशलता से न चला सके।

इससे आगे वित्तीय नुकसान हो सकता है और मानसिक स्थिति और भी खराब हो सकती है। दिल्ली के सफदरजंग जैसे सरकारी अस्पतालों की सरहदों पर आपने कई रेहड़ी-पटरी को देखा होगा। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पुलिस और अस्पताल के अधिकारी उन्हें बिना किसी कानूनी लाइसेंस के अस्वच्छ वस्तुओं को बेचने की अनुमति देते हैं और उनकी मदद करते हैं। चाय बेचने वालों और फेरीवालों को अस्पताल के विभिन्न वार्डों में जाने की इजाजत होती है ताकि वे अच्छी कमाई कर सकें।

रिश्वत और अस्पताल (Bribery and The Hospital):

क्या आपको लगता है कि उपरोक्त सभी कार्य बिना किसी सहायता या “रिश्वत” के संभव हैं? अब जरा कल्पना कीजिए कि एक वैध लाइसेंसधारी दुकानदार की स्थिति कैसी होगी जिसकी इन सब के कारण बिक्री बाधित हो चुकी है। दुकान का किराया, बिजली-पानी का बिल, लाइसेंस शुल्क आदि का भुगतान करने के बावजूद भी वह बेहद असहाय है।

उसे क्या करना चाहिए? क्या उसे अपने परिवार या इन मुफ्त खाने वालों की देखभाल करनी चाहिए? क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि मुफ्त खाने वालों की कतार में अगला कौन है? यह है अस्पताल के पहरेदार (Guards)।

कल्पना कीजिए कि माल से लदा एक ट्रक उसकी दुकान तक पहुँचता है और उसे उतारने का समय आ गया है। गार्ड न तो ट्रक को एक पल के लिए रुकने देते हैं और न ही सामान को जमीन पर रखने देते हैं। दुकानदार की हालत नाजुक है क्योंकि वह अपना माल दुकान में व्यवस्थित नहीं कर पा रहा है।

अब फिर से गार्ड के साथ पुलिस कर्मी होंगे जो उसका सामान इधर-उधर फेंकना शुरू कर देंगे जिससे दुकानदार का भारी नुकसान होगा। इसलिए, गार्ड की शक्ति को कभी कम मत समझना। बस उन्हें 500 रुपये दे दो और उन सेवाओं को प्राप्त कर लो जिनके बारे में आपने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा। वे आपको मुफ्त पार्किंग की जगह, दवाएं, दस्ताने, पॉलीथिन कचरा बैग और कई अन्य आइटम्स या चीज़ें प्रदान करेंगे।

कठोर सत्य (The Harsh Truth)

अब ऐसी घटनाओं को अधिक ऊर्जा देने वाला विभाग अस्पताल का विद्युत विभाग है। आम आदमी की मानसिक शांति भंग करने के लिए उनकी अपनी विद्युतीकरण तकनीक है। दुकानदार ने उनकी बात नहीं मानी तो वे दुकान की बिजली आपूर्ति काट देंगे।

देर शाम के दौरान, मैंने कई शराबी और नशा करने वालों को ऐसे प्रतिष्ठित अस्पतालों में और उसके आसपास घूमते देखा है। वे मुफ्त में खाने योग्य सामान की मांग कर दुकानदारों को प्रताड़ित भी करते हैं। किसी भी पुलिस या अस्पताल के अधिकारियों ने उन्हें उनके परिसर से बाहर नहीं निकाला। ये वाकई चौंकाने वाली बात है!

आपको बता दूँ कि मैं भी एक डॉक्टर हूं और मैं यहां किसी को बदनाम नहीं कर रही हूँ। मैं जितना हो सके समाज के उत्थान के लिए काम करने में विश्वास रखती हूँ। लेकिन यह हमारे सिस्टम का कड़वा सच है जो दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है।

मैंने कई अस्पतालों के डॉक्टरों और नर्सों को मुफ्त खाने के लिए दुकानदारों के साथ दुर्व्यवहार करते देखा है। भारत के एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में, मैंअपने जीवन में कभी भी ऐसी गतिविधियाँ नहीं कर सकती हूँ और न ही कभी करूँगी !

एक दुकानदार जो जीवन में कमाना चाहता है, उसका पूरा समय और ऊर्जा विभिन्न विभागों के अधिकारियों के खिलाफ लिखित शिकायत में ही खर्च हो जायेगा तो वह कमाएगा क्या। हालात और भी बिगड़ेंगे। अगर आपको लगता है कि सिस्टम के शीर्ष अधिकारियों तक पहुंचने के बाद उसे न्याय मिलेगा, तो आप गलत हैं! सिस्टम के लोग भी तभी सुनेंगे जब उन्हें भी दुकानदार की मेहनत की कमाई का एक हिस्सा मिल रहा हो।

भ्रष्टाचार और पीड़ित (Corruption and The Sufferer) :

अंततः यह सब भ्रष्टाचार में वृद्धि करता है और हर व्यक्ति को इसका हिस्सा बनना पड़ता है। यह हमें यह दर्शाता है की ऐसी दुकाने भी वही लोग चला सकते हैं जिनके पास इस तरह के संपर्क और उनसे निपटने की शक्ति होती है। अगर यह अपमान जारी रहा तो हमारा समाज जल्द ही ब्लैक होल में प्रवेश कर जायेगा। आप सोच रहे होंगे कि मैं इस कड़वे सच को कैसे जानती हूँ! खैर, “मैं भी ऐसे पीड़ितों में से एक हूँ”।

अगर आप यही ब्लॉग अंग्रेजी भाषा में पढ़ना चाहते हैं तो दिए गए लिंक पर क्लिक करें Me & The Reality of Society – The Harsh Truth” Part 2


यदि आप इस ब्लॉग को पहली बार पढ़ रहे हैं, तो आपको मेरे पिछले ब्लॉग >>> “मैं और समाज की वास्तविकता – कठोर सत्य” भाग 1 को बेहतर ढंग से समझने के लिए पढ़ना सकते हैं।

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डि‍सक्‍लेमर (अस्वीकरण): यह लेख या ब्लॉग वास्तविक जीवन के अनुभव के आधार पर बनाया गया है। डॉ. प्रियंका जैन (पीटी) w.r.t. www.drjainpriyanka.com ने किसी को बदनाम करने के लिए ऐसा नहीं किया है। यहां उन्होंने सिर्फ अपने विचार व्यक्त करने की कोशिश की है।

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